फिलहाल, रावण का धड़ बन गया है। इसमें अहम तथ्य यह है कि जन्म के साथ ही रावण फूलना शुरू कर देता है। यह फुलाव घमंड का हो सकता है,असीमित शक्ति का और शायद संपन्नता का भी। जैसे-जैसे रावण दहन का समय नजदीक आता जाएगा रावण का शरीर और सिर घमंड से बढ़ते जाएंगे। एक सिर वाला रावण दस सिर का हो जाएगा।…और फिर जैसा कि कहावतों/मुहावरों में कहा जाता है कि ‘पाप का घड़ा भर गया है’,’बुराई का अंत निकट है’ या फिर ‘बुराई का अंत अच्छाई से होता है,’ वाले अंदाज में तमाम बड़े आकार प्रकार के बाद भी रावण को अंततः जलना पड़ता है।
वैसे, इन दिनों समाज में समय के साथ-साथ रावण का कद और संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है। कभी 20-21 फीट का रावण आज 100 फीट को भी पार कर गया है । इसके बाद भी न तो रावण जलाने वालों की भूख शांत हुई है और न ही रावण का घमंड कम हुआ है इसलिए मृत्यु के बाद भी रावण हर नए साल में नए रंग-रूप और आकार-प्रकार के साथ फिर जन्म ले लेता है । समय के साथ रावणों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। पहले किसी शहर में एक या दो जगह ही रावण दहन होता था लेकिन अब रावण जलाने वाले भी बढ़ गए हैं और रावण भी। महानगरों क्या, अब तो छोटे छोटे शहरों में भी हर गली-मोहल्ले में रावण अपने बंधु-बांधवों के साथ बच्चों के खेलने के मैदान पर कई दिन पहले से कब्ज़ा करने लगा है। उधर, बच्चे भी दशहरे की छुट्टियों के बाद भी मैदान में दिखने की बजाए मोबाइल में तोप तमंचे चलाने वाले खेलों में आंखें गड़ाए रहते हैं। इससे बच्चे भी खुश हैं,उनके अभिभावक भी और रावण भी फूल कर कुप्पा है।
रावण का अंत भले ही देशभर में एक साथ एक जैसा होता है लेकिन अपने जन्म से लेकर जलने तक के नौ दिनों के दौरान वह मीडिया की सुर्खियां जरूर बटोरता रहता है। कभी शहर के किसी खास क्षेत्र को ही रावण गली कहा जाता था क्योंकि रावण के सबसे ज्यादा पुतले वही बनते थे लेकिन समय के साथ रावण के जन्म स्थान का भी जमकर विस्तार हुआ है। अब शहर के कई इलाकों में छोटे बड़े आकार के सैंकड़ों रावण नजर आने लगे हैं।
एक बार रावण कुनबे का आकार प्रकार तय हो जाने के बाद उनके जन्मदाता उनके अंदर आतिशबाजी लगाने का काम करते हैं क्योंकि रावण के जलने में असल मजा तो बम पटाखों का ही है। जब वह अपनी भयंकर कानफोडू आवाज और आंखों को चुंधिया देने वाली रोशनी यहां वहां बिखेरता है तो दर्शक उल्लासित होकर तालियां बजाने लगते हैं। एक तरह से इस आतिशबाजी, बम की आवाज और रंग-बिरंगी रोशनी के जरिए रावण अपनी ताकत का अहसास कराता है।
आम लोग भी वहीं सबसे ज्यादा जुटते हैं जहां का रावण सबसे ज्यादा धूम धड़ाका करता है। यह दिखावा आम जिंदगी का फलसफा भी बनता जा रहा है मतलब जो जितना ज्यादा दिखावा कर सकता है उसकी उतनी ही ज्यादा पूछ होती है। फिर भले ही वह बुराइयों का पुतला ही क्यों न हो। शायद, यही वजह है कि इन दिनों किसी अपराध में पकड़े जाने पर भी नामी लोग शर्म से चेहरा छुपाने की बजाय ‘विक्ट्री साइन’ बनाते हुए जेल जाते हैं और मात्र जमानत मिलने पर उसके समर्थक ऐसा जलसा करते हैं जैसे वह जेल से नहीं बल्कि सरहद पर दुश्मन को धूल चटाकर लौट रहे हैं।
समाज में बढ़ती दिखावे की यह प्रवृत्ति उच्च वर्ग से मध्यम वर्ग तक बिल्कुल वैसे ही यत्र-तत्र-सर्वत्र फैलती जा रही है जैसे दशहरे पर रावण के पुतलों की संख्या। शायद समाज को अब अपने बीच बुरी प्रवृत्ति वाले लोगों की मौजूदगी खटकती नहीं है। यदि ऐसा होता तो हर चुनाव में दागी प्रत्याशियों की संख्या नहीं बढ़ती? बुराइयों के प्रति हमारी सहनशीलता इस हद तक बढ़ गई है कि नवरात्रि के दौरान हम कन्या को देवी मानकर पूजते हैं और बिना किसी तीखे विरोध के उनके साथ बलात्कार जैसी घिनौनी घटनाओं के साक्षी भी बनते हैं।
यदि हमें बेहतर समाज का निर्माण करना है तो बुराइयों को विस्तार देने की बजाय इस प्रवृत्ति पर रोक लगानी होगी। इसकी शुरुआत प्रतीकात्मक ही सही, रावण के पुतलों से की जा सकती है क्योंकि दशानन को हम जितना मजबूत और लोकप्रिय बनाकर समाज में उसकी स्वीकार्यता बढ़ाते जाएंगे उससे जुड़ी बुराइयां भी समाज में उतनी ही गहराई से जड़ जमाती जाएंगी।
*(लेखक आकाशवाणी भोपाल में समाचार संपादक हैं और ‘चार देश चालीस कहानियां’ एवं ‘अयोध्या 22 जनवरी’ जैसी लोकप्रिय किताब लिख चुके हैं।)
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