बालूशाही के बहाने आज बदलाव की बात…दरअसल, पिछले कुछ महीनों का अनुभव है कि बालूशाही एक बार फिर मिठाइयों की जीतोड़ प्रतिस्पर्धा में अपनी पहचान बनाती दिख रही है। पिछले दिनों हुए कुछ बड़े और अहम् आयोजनों में मिठाई के लिए आरक्षित स्थान पर बालूशाही ठाठ से बैठी दिखी…कहीं इसे गुलाब जामुन का साथ मिला तो कहीं किसी और मिठाई का और कहीं-कहीं तो इसकी अकेले की बादशाहत देखने को मिली। इससे शुरूआती नतीजा यही निकाला कि बालूशाही मिठाइयों की मुख्य धारा में लौट रही है और धीरे-धीरे अपना खोया हुआ अस्तित्व पुनः हासिल कर रही है।
इन दिनों पिज़्ज़ा, बर्गर,केक और पेस्ट्री में डूब-उतरा रही नयी पीढ़ी ने तो शायद बालूशाही का नाम भी नहीं सुना होगा। इस पीढ़ी को समझाने के लिए हम कह सकते हैं कि बालूशाही हमारे जमाने का मीठा बर्गर था या फिर आज का उनका प्रिय डोनट। समझाने तक तो ठीक है, लेकिन ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली’ वाले अंदाज में कहें तो बालूशाही की बात और अंदाज़ ही निराला है। मैदे और आटे की देशी घी के साथ गुत्थम गुत्था वाली नूराकुश्ती के बाद उठती सौंधी और भीनी सुगंध और फिर चीनी की चाशनी में इलायची की खुशबू के साथ गोते लगाती गोल मटोल बालू। दरअसल बालू इसलिए क्योंकि शाही सरनेम तो इसे चीनी और इलायची का आवरण ओढ़ने के बाद ही मिलता है। कई जगह इसे बालुका भी कहते हैं जिसका अर्थ होता है बाटी या गेंहू से बनी गेंद। जब यह बालुका, चाशनी को पीकर और उसमें नहाकर शाही तेवर अपनाते हुए इतनी मुलायम हो जाती है कि मुंह में रखते ही घुल जाती है। देखने में कचौरी की छोटी-मीठी बहन और आकार में लड्डू की दीदी बालूशाही किसी समय हर शादी-ब्याह,पार्टी और पंगत का सबसे प्रमुख आकर्षण होती थी। अपने मीठे पर सूखे कलेवर के कारण इसे कहीं भी लाना-ले जाना और रिश्तेदारी में भेजना भी आसान था क्योंकि न तो यह गुलाब जामुन खानदान की तरह रस टपकाकर कपडे ख़राब करती है और न ही लड्डू की तरह भरभरा कर बिखर जाती है बल्कि यह तो ‘माँ’ की तरह ऊपर से कठोर और अन्दर से नरम स्वभाव वाली है। हमारी बालूशाही खोया और छेना की छरहरी मिठाइयों की तरह भी नहीं है जिनके स्वाद की असलियत दो चार दिन में खुल जाती है और वे बेस्वाद हो जाती हैं जबकि बालूशाही तो कई दिनों तक अपने स्वाद को अपने अंदर सहेजे रहती है।
उत्तरप्रदेश और बिहार में तो बताते हैं कि आज भी बालूशाही का राज चल रहा है और नए दौर की मिठाइयाँ इसके इर्द-गिर्द उसी तरह संख्या बढाने का काम काम करती हैं जैसे विवाह में दुल्हन की सहेलियां। उत्तरप्रदेश के बरेली के श्यामगंज में रम्कूमल की दुकान पर मिलने वाली शुद्ध देशी घी में बन रहीं करीब 100 साल पुरानी बालूशाही की मिठास आज भी लोगों को अपनी ओर खींच लाती है। बरेली का झुमका तो पहले ही बरेली के बाजार को देश भर में लोकप्रिय बना गया लेकिन यहाँ की बालूशाही ने झुमके को भी पीछे छोड़ दिया।
भारत ही क्या, हमारे हमजाया पाकिस्तान-बांग्लादेश और नेपाली व्यंजनों में भी यह ऊँचे दर्जा रखती है। बालूशाह, मक्खन बड़ा,भक्कम पेड़ा और या बाडुशा जैसे नामों से लोकप्रिय बालूशाही के नाम से भी जाना जाता है.जब बालूशाही में क्षेत्र के अनुसार कई तरह के बदलाव भी देखने को मिलते हैं मसलन उत्तर भारत में बालूशाही ज़्यादा मालदार होती है, वहीँ, दक्षिण में आमतौर पर सूखी और कम मीठी । लेकिन इस विविधता के बावजूद, बालूशाही इन दोनों ही इलाकों में अपनी खास पहचान रखती है ।
खास बात यह है कि बालूशाही पूरीतरह से स्वदेशी है और हमारे देश में ही जन्मी और सैकड़ों साल से अपने खास स्वाद के साथ विकसित हुई है। यही कारण है कि जयपुर और घनघोर मालवा में यह मक्खन बड़ा के बदले नाम से नजर आती है. इन्हीं वहीं,मक्खन बड़ा दक्षिण में बेकिंग सोडा से यारी कर यह बाडुशा कहलाने लगती है तो गोवा जाकर वहां की खुली आवोहवा में यह भक्कम पेड़ा बन जाती है.
बालूशाही की वापसी से यह बात भी साबित होती है कि किसी का भी समय सदैव एक सा नहीं रहता, वह बदलता जरूर है। बस, इसके लिए धीरज और कुछ समयानुरूप बदलाव की जरूरत होती है। इसलिए, यदि आप अभी गुमनामी के दौर से गुजर रहे हैं तो निश्चिंत रहिए वक्त आपका भी बदलेगा और आप भी अपने समाज की मुख्य धारा में एक दिन अवश्य ही वापस लौटेंगे। और हां एक और बात, जो लोग इन दिनों सोन पापड़ी का मज़ाक बना रहे हैं वे भी ध्यान रखें कि सुनहली रंगत वाली यह मिठाई एक दिन फिर शादी-पार्टियों की शान बनेगी और तब आपको उसके डिब्बे बिना खोले किसी और के यहां भेज देने का पछतावा होगा। वैसे भी, वंदे भारत जैसी ट्रेनों में सोन पापड़ी अपने परिवार को छोड़कर अकेले नई पैकिंग में नजर आने लगी है। आप भी, समय के मुताबिक खुद में कुछ बदलाव लाइए और फिर देखिए,समाज आपको कैसे हाथों हाथ लेता है।
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