Wednesday, August 28, 2024

पाठकों ने इस तरह बना दिया ‘अयोध्या 22 जनवरी’ पुस्तक को दस्तावेज

…और ‘अयोध्या 22 जनवरी’ पुस्तक से दस्तावेज बन गई। अखबारों में आज छपी खबरों, मीडिया की नामचीन हस्तियों की संजीदा मौजूदगी, परिजनों,पत्रकारीय जीवन के साथियों, आकाशवाणी की टीम और विभिन्न क्षेत्रों के अनेक जाने माने लोगों की उपस्थिति और उनकी प्रतिक्रियाओं ने ‘अयोध्या 22 जनवरी’ को दस्तावेज बना दिया। 

शनिवार 29 जून को रीडर्स क्लब भोपाल के ‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम के दिन मौसम विभाग ने पहले ही भारी बारिश की चेतावनी देकर डरा दिया था। इसके बाद दिन चढ़ते ही शैतान बादलों ने अपनी धुंआधार कलाबाजियों से मौसम विभाग की चेतावनी को सच्चाई बना दिया। हम मतलब Manoj Kumar  भैया, मेरे हमनाम Sanjeev Persai ,अपनी ही राशि के Sanjay Saxena  और हम कदम Manisha Sanjeev जी..फिक्रमंद थे कि ऐसी बरसात में कोई कैसे आ पाएगा? लेकिन पढ़ने/सुनने/कहने की पुस्तक प्रेमियों की चाह को बारिश की धमा चौकड़ी भी नहीं रोक पाई। कुछ भीगते,कुछ बचते बचाते लोग जुटने लगे और चार बजे के लिए निर्धारित कार्यक्रम में साढ़े चार बजे तक 9 मसाला रेस्त्रां का सभागार खचाखच भर गया (वैसे भी, भारतीय समय तो यही है कार्यक्रम शुरू होने का)। वैसे, सर्व गुण संपन्न पत्रकार Ahmad Rashid Khan  ने पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि बेफिक्र रहिए सर, बहुत लोग आएंगे। साथ ही, मौसम वैज्ञानिक Gurudatta Mishra जी की मौजूदगी से भी हम आश्वस्त हो गए थे कि बाकी लोगों को भी आने का मौका मिलेगा। पहले मूल रूप से लगाई गई कुर्सियां भरी, फिर अतिरिक्त और उसके बाद व्यवस्थापकों ने हाथ खड़े कर दिए कि अब और कुर्सियां नहीं लग सकती और न ही अब कुर्सियां बची हैं।

जगह की हो रही कमी को महसूस कर पहले परिजनों ने कुछ कुर्सियां छोड़ी और बाद में आकाशवाणी के साथियों ने दिल बड़ा किया ताकि मेहमान बैठ सकें। कुछ लोगों ने बाहर से रिमझिम के बीच कार्यक्रम का आनंद लिया। फिर अनुशासित प्रस्तोता और संचार विशेषज्ञ संजीव ने कमान संभाली। चूंकि कार्यक्रम एक घंटे में समेटना था (उस सभागार में आगे भी एक कार्यक्रम था और हमने तय भी यही किया था) इसलिए वक्ता भी सीमित रखे गए थे लेकिन पाठकों पर किसी का जोर चला है क्या…!! स्थिति यह बन गई कि मूल वक्ता पीछे छूट गए और उत्साही पाठक बोलते गए। संजीव ने समय की कमी के मद्देनजर भरपूर प्रयास किए और एडवोकेट Yogesh Verma  जैसे कुछ अपने लोगों को सादर न बोलने के लिए मना भी लिया तो Pushpendra Mishra जी जैसे वक्ताओं को समय की सीमा में बांध दिया। फिर भी, वरिष्ठ पत्रकार चंद्रहास शुक्ला,मौसम वैज्ञानिक और मेरे छात्रावासी जीवन के वरिष्ठ गुरुदत्त मिश्रा जी, जाने माने योग गुरु Devi Dayal Bharti  जी, भारतीय सूचना सेवा के साथी Ajay Upadhyay , वरिष्ठ पत्रकार शुरैई नियाजी,जनसंपर्क अधिकारी रीतेश दुबे, जाने माने कमेंट्रैटर Prashant Singh Sengar ,समाचार वाचक Dharana Sachdev और राशिद अहमद खान को अपनी बात रखने का मौका मिल ही गया। मनीषा जी को भी अपने मनोभाव समेटने पड़े तो मनोज भैया ने अपना संबोधन और संजीव ने अपनी पटकथा सीमित कर ली। वरिष्ठ पत्रकार Ajay Bokil , Sarman Nagele, वरिष्ठ जनसंपर्क अधिकारी Manoj Dwivedi ,भारतीय सूचना सेवा के Prashant Sharma और समीर वर्मा, मित्र @सुरेंद्र गुप्ता और Hema Gupta  जी, डा अनामिका रावत, जानी मानी पत्रकार, उद्घोषक Sanyukta Banerjee , समाजसेवी और पर्यावरणविद डा रचना डेविड सहित कई विशिष्ट जनों की मौजूदगी ने कार्यक्रम की गरिमा बढ़ा दी।

इसके बाद शुरू हुआ अनूठा प्रश्नोत्तर सत्र। दोस्त,लेखक और संचारक संजय सक्सेना ने अपनी रोचक शैली में प्रश्नों के गोले दागे और हम भी निर्भीक सिपाही की तरह शब्दों की ढाल से उनका सामना करते गए। पुस्तक क्यों से लेकर हर पुस्तक के शीर्षक में अंकों के इस्तेमाल,हर लेख में चौपाई क्यों जैसे प्रश्नों के जरिए संजय ने ‘अयोध्या 22 जनवरी’ के लेखन के पीछे की कहानी पाठकों तक पहुंचा दी। तब तक 9 मसाला रेस्त्रां की टीम गरमा गरम पकौड़े और चाय लेकर हाजिर हो गई। बारिश के बीच चाय पकौड़े की भारतीय मेजबानी और मनमोहक/लज़ीज़ सुगंध भी उपस्थित लोगों के बोलने/सुनने के इरादों को डिगा नहीं सकी। दरअसल, घड़ी की सुइयां शाम के 6 बजे के आगे पहुंच गई थी इसलिए अगले आयोजन की तैयारी के मद्देनजर 9 मसाला की टीम चाहती थी कि लोग जल्दी खाएं और जाएं..पर  सभागार में मौजूद लोगों के इरादे थे कि खायेंगे जरूर पर जाएंगे पूरा सुन/देख कर ही। 

खैर, किसी तरह बोलने सुनने का दौर थमा तो स्मृतियों को सहेजने के लिए मोबाइल के कैमरे मैदान में आ गए…अनगिनत फोटो, मौके पर खरीदी गई दर्जनों किताबों पर हस्ताक्षर का गौरव, ढेर सारी सराहना और फिर ऐसे ही किसी आयोजन में मिलने के वादे के बीच यह कार्यक्रम संपन्न हुआ। कार्यक्रम का सबसे महत्वपूर्ण चरण यह था कि शुरुआत में रीडर्स क्लब ने सुप्रसिद्ध साहित्यकार प्रोफेसर शरद पगारे को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की और दो मिनट का मौन रखा।


#अयोध्या22जनवरी #ayodhya22january 

रीडर्स क्लब

@followers  @highlight

एक सौ एक नॉट आउट…!!

सौ साल पूरे करना किसी भी प्रसारण माध्यम/संस्थान के लिए गर्व की बात है। हमारे देश में विधिवत रेडियो प्रसारण का आज 101 वां जन्मदिन है।  23 जुलाई, 1927 को इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी (IBC) अस्तित्व में आई और यहीं से रेडियो प्रसारण को सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन मिला. यही कारण है कि 23 जुलाई राष्ट्रीय प्रसारण दिवस के रूप में मनाया जाता है. वैसे निजी तौर पर रेडियो प्रसारण 1923 से शुरू हो गया था। 8 जून 1936 को इसे ऑल इंडिया रेडियो (AIR) नाम  दिया गया और 1957 में आकाशवाणी नाम अपनाकर कर यह रेडियो प्रसारण का पर्याय बन गया । 

हर साल नेशनल ब्रॉडकास्टिंग दिवस सेलिब्रेट करने का उद्देश्य रेडियो का महत्व याद दिलाना है। इन सौ सालों में रेडियो ने सतत रूप से जवान होते हुए कई उपलब्धियां हासिल की हैं। अब नए नवेले डिजिटल रूप में साफ आवाज़, अल्फाज़ और अंदाज़ में यह मोबाइल फोन और कार के साउंड सिस्टम के जरिए हर घर तक पहुंच रहा है और हर दिल में जगह बना रहा है। यह हर जेब का हिस्सा भी बन चुका है।

 हाल ही में रायटर और ऑक्सफोर्ड जैसे नामचीन संस्थानों के सर्वे में आकाशवाणी और आकाशवाणी से प्रसारित समाचारों को देश भर के सभी मीडिया में सबसे विश्वसनीय माना गया है। तकनीकी के साथ कदम से कदम मिलाते हुए आकाशवाणी की सेवाएं अब रेडियो से भी आगे मोबाइल ऐप newsonair पर लाइव उपलब्ध हैं और आप दुनियाभर में कहीं से भी एक टच पर भोपाल से लेकर देश के किसी भी रेडियो स्टेशन का प्रसारण सुन सकते हैं।

  इसके अलावा,हमारे समाचार बुलेटिन और समसामयिक कार्यक्रम यूट्यूब, एक्स और फेसबुक पर भी उपलब्ध हैं जिन्हें आप अपनी सुविधा से कभी भी और कहीं भी सुन सकते हैं। इसलिए,सबसे विश्वसनीय/सटीक/सहज और सहयोगी माध्यम के हमारे जीवन से जुड़ने-ज़िंदगी का हिस्सा बनने और तमाम उतार चढ़ाव के बाद भी निरंतर सहभागी के रूप में कायम रहने की बधाई। रेडियो इसी तरह फले फूले… सभी रेडियो प्रेमियों को बधाई-शुभकामनाएं🙏


#NationalBroadcastingDay 

#राष्ट्रीयप्रसारणदिवस

क्या रेडियो डाइंग मीडियम है?

 


रेडियो डाइंग मीडियम है? रेडियो कौन सुनता है? आकाशवाणी में कैरियर की क्या संभावनाएं हैं? रेडियो प्रसारण कितने प्रकार के हैं?आकाशवाणी के समाचारों की कॉपी कैसे लिखी जाती है? यह अख़बार की न्यूज से कितनी अलग है? जैसे तमाम सवालों के साथ #lnctbhopal के ‘स्कूल ऑफ़ जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन’ के विद्यार्थियों की टीम तैयार थी…अवसर था-#राष्ट्रीयप्रसारणदिवस पर ‘बदलते वक्त के साथ बदलता रेडियो’ विषय पर संवाद का। 

सोशल मीडिया, पॉडकास्ट और इससे आगे बढ़ चुकी नई पीढ़ी के साथ सौ साल पुराने मीडियम की बात करना और उन्हें बातचीत में रुचि के साथ जोड़े रखना आसान नहीं है लेकिन #LNCT के सुलझे हुए गुरुओं Anu Shrivastava जी, @ManishkantJain और अन्य सहयोगियों की विद्वान टीम तथा अनुशासित विद्यार्थियों ने इस संवाद को आसान बना दिया और चर्चा संपन्न होने के बाद अधिकतर विद्यार्थियों की व्यक्त/अनकही प्रतिक्रिया यही थी कि- रेडियो और खासकर #आकाशवाणी में इतना कुछ है,हमें पता ही नहीं था। 

कुछ विदेशी विद्यार्थियों को भी भारत के लोक प्रसारक के बारे में बताने का मौका मिला। उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है कि इस संवाद सत्र के बाद विद्यार्थियों की यह गलतफहमी दूर हो गई होगी कि रेडियो डाइंग मीडियम है और वे यह बात भी समझ सके होंगे कि रेडियो वक्त के साथ बदलता माध्यम है और भविष्य की संभावनाओं से भरपूर भी…कुल मिलाकर, एक अच्छा दिन,मजेदार संवाद और सिखाने से ज्यादा सीखने वाला भी।

#NationalBroadcastingDay 

#Akashvani   #आकाशवाणी

बूंदों,बादलों,पानी और हरियाली का मेला!!

नीचे लबालब पानी,ऊपर शरारती बूंदें और चारों ओर मानसून में नहाकर चमकदार हरे रंग में रंगे वृक्षों से भरा घना जंगल। हम किसी अबूझ द्वीप या विदेश की किसी सिनेमाई लोकेशन की बात नहीं कर रहे बल्कि अपने शहर भोपाल के इर्द गिर्द बसे कई प्राकृतिक श्वसन तंत्रों में से एक कोलार डैम की बात कर रहे हैं। इन दिनों यहां प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता कई गुना बढ़ गई है। 

चेहरे के साथ अठखेलियां करती कभी नन्हीं तो कभी बादलों से तर माल उड़ाकर आईं मोटी बूंदे, कभी भिगोकर तो कभी छींटें मारकर हमारे आसपास अपनी मौजूदगी का सतत अहसास कराती रहती हैं। वहीं, काले, घने, मचलते बादल एक छोर से दूसरे छोर तक रेस लगाते से नज़र आते हैं। ऐसा लगता है अभी टूटकर बरस पड़ेंगे और आपके पास छाते में छिपकर कार में घुसने के अलावा कोई और विकल्प नहीं रहेगा..लेकिन जैसे ही आप डरकर भागते हैं,ये नटखट और बदमाश बादल खिलखिलाते हुए कोलार बांध को दूर से निहारने के लिए कहीं ओर टहलने निकल जाते हैं।

आप, बादलों और बूंदों के खेल में ठीक से शामिल भी नहीं हो पाते हो कि नीचे कोलाहल करती विशाल जलराशि अपनी ओर ध्यान खींचने का पुरजोर प्रयास करती दिखती है। अथाए पानी, दूर दूर तक बस पानी ही पानी…जैसे समंदर हो। बड़े तालाब का तो फिर भी ओर-छोर दिखता है परंतु कोलार डैम में बस पानी ही पानी दिखता है। यहां पानी ने पेड़ों के समूह को खास गोलाकार अंदाज में अपनी बांहों में समेट रखा है जैसे थोड़ी-थोड़ी दूर पर पानी के गमलों में किसी ने पेड़ लगा दिए हों।

वैसे तो रहीम कह गए हैं कि ‘बिन पानी सब सून..’, लेकिन यहां पानी से भी आकर्षक है चटक हरियाली,आंखों को लुभाती, मोबाइल के कैमरों पर कब्ज़ा जमाती और हर फोटो के लिए खूबसूरत बैकग्राउंड बनाती हरियाली। आप चाहकर भी अपने आपको रोक नहीं सकते और जब पेड़ों,पानी, बादल,बूंदों (छुट्टी के दिनों में डीजल पेट्रोल भी) की मिली-जुली महक आपकी सांसों से होती हुई फेफड़ों में पहुंचती है तो वे भी फूलकर 56 इंच के होना चाहते हैं ताकि कुछ हफ्ते या महीने की शुद्ध हवा को जमा कर सकें।

कोलार रोड पर बैरागढ़ चीचली के बाद कालापानी जैसे अंतिम गांव को पार करते ही आप प्रकृति की इस लीला के साक्षी बनने लगते हैं। सड़क के दोनों ओर से ताका झांकी करते कई प्रजातियों के पेड़ आपके साथ साथ चलते हैं। रास्ते में,लाल कोयले पर सिंकते पीले भुट्टो की खुशबू से यदि आप मदहोश नहीं हुए तो अपने समय पर कोलार डैम पहुंच जायेंगे और भुट्टों ने मोहपाश में बांध लिया तो कुछ देर बाद। 

हरियाली और जंगल का आलम यह है कि ऊंचाई से दिखते सड़क के कुछ टुकड़े अपने अस्तित्व के लिए लड़ते दिखते हैं। यदि आप भदभदा के गेट के दीदार और यहां जुटती भीड़ से ऊब चुके हैं तो आपके लिए कोलार डैम सर्वोत्तम विकल्प है। इसी तरह, यदि कलियासोत पर बाघ की मौजूदगी डराती है और केरवा की सड़क पर लगता जाम परेशान करता है तो जनाब,परिवार के साथ कोलार डैम का रुख करिए…यहां आपको फिलहाल प्रकृति की गोद में बैठ कर सुकून ही मिलेगा।

अंत में एक सुझाव भी: कोलार या कहीं भी प्रकृति से साक्षात्कार करने जाएं तो अपनी कार दूर खड़ी कर पैदल ही घूमे।तभी आप इतना कुछ महसूस कर पाएंगे।


#कोलार डैम #भोपाल

समोसे-कचौरी पर क्यों मेहरबान हैं ‘सरकार’


आप इन दिनों किसी भी सरकारी या गैर सरकारी आयोजन में जाइए, वहां खाने-पीने के नाम पर जो पैकेट दिए जाते हैं या फिर जो सामग्री परोसी जाती है उसमें समोसे, कचौरी, हॉट डॉग, बर्गर और गुलाब जामुन होना सामान्य बात है। वहीं, सामान्य ट्रेन तो छोड़िए वंदे भारत, शताब्दी और राजधानी जैसी प्रीमियम ट्रेनों में भी ब्रेकफास्ट से लेकर खाने तक के मैन्यू में समोसा, कचौरी, आइसक्रीम और गुलाब जामुन मिलना आम है। समोसा कचौरी और आइसक्रीम तो ट्रेन के खानपान का सबसे अनिवार्य हिस्सा है। कोई भी मौसम हो आपको भोजन के साथ दिन हो या रात आइसक्रीम जरूर दी जाएगी। हाल ही में मुझे विज्ञान के आईआईटी-आईआईएम स्तर के एक संस्थान के कार्यक्रम में शामिल होने का मौका मिला। वहां भी अतिथियों से लेकर विद्यार्थियों तक को खाने के नाम पर समोसा, कचौरी, हॉट डॉग और पेटिस जैसी सामग्री परोसी गई । हर सरकारी और प्राइवेट सेक्टर की कैंटीन में समोसा-कचौरी का सबसे अहम स्थान पर बैठकर इठलाना आम बात है। समोसा और कचौरी ही क्यों, गोलगप्पे, चाट, जलेबी, पकोड़े, सैंडविच, केक, ब्रेड, ब्रेड पकौड़े, मोमोज, चाउमिन, पराठे, कटलेट, फ्रेंच फ्राइज़ जैसी तमाम स्वादिष्ट और जीभ ललचाने वाली और जंक फूड परिवार का अभिन्न अंग सामग्रियां हर छोटे बड़े शहर और दफ्तर का अनिवार्य हिस्सा हैं। ये सभी सामग्रियां स्वाद से भरपूर हैं और निश्चित ही यह लेख पढ़ते वक्त आपके मुंह में भी पानी आ रहा होगा लेकिन क्या आप जानते हैं कि तेल, नमक, चीनी और फैट से भरपूर यह खान-पान हमारी सेहत को कितना नुकसान पहुंचा रहा है? सोचिए, जिस देश में मधुमेह से पीड़ित लोगों की संख्या करोड़ों में हो और उतनी ही संख्या में लोग बीपी यानी उच्च रक्तचाप से पीड़ित हो वहां ट्रेन से लेकर शैक्षणिक संस्थानों तक और सरकारी आयोजनों से लेकर गैर सरकारी पार्टियों तक में खुलकर जंक फूड परोसा जाता है। हम सब जानते हैं कि जंक फूड का मतलब ऐसे खाने से है जो स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है। फिर भी न तो इस बात की फिक्र आयोजकों को है और न ही आम तौर पर खाने वालों को। बाजार में तो जंक फूड की दुकानें सजी हुई है। रेहड़ी पटरी से लेकर लक दक मॉल में बड़े बड़े ब्रांड के खान-पान सेंटर तक में इनकी भरमार है। रही सही कसर, पिज़्ज़ा-बर्गर और इसी तरह के अन्य विदेशी खान-पान ने पूरी कर दी है। परिवार के परिवार बिना अपनी सेहत की चिंता किए आए दिन जंक फूड की पार्टियां कर रहे हैं । बाजार का तो समझ में आता है क्योंकि वह मुनाफे के लिए ही काम करता है लेकिन आम लोगों और खासकर शैक्षणिक और सरकारी संस्थाओं का क्या? उन्हें तो कम से कम इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने खान-पान के जरिए आदर्श स्थापित करें। एक और सरकार मोटे अनाज को भगवान का प्रसाद यानी श्रीअन्न कहकर बढ़ावा दे रही है, वहीं उसके ही मातहत संस्थान दिन रात जंक फूड खिलाकर आम लोगों को बीमार बनाने का काम कर रहे हैं।


इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन की रिपोर्ट के अनुसार 20 से 79 साल की उम्र के 463 मिलियन लोग डायबिटीज की बीमारी से ग्रसित हैं। यह इस आयु वर्ग में दुनिया की 9.3 फीसदी आबादी है। रिपोर्ट कहती है कि चीन, भारत और अमेरिका में सबसे अधिक डायबिटीज के वयस्क मरीज हैं।


2021 के अध्ययन के अनुसार, भारत में 10 करोड़ से ज्यादा लोग मधुमेह से ग्रसित हैं और इतने ही  प्री-डायबिटीज थे, जबकि 31 करोड़ से ज्यादा लोगों को उच्च रक्तचाप था। इसके अलावा, 25 करोड़ से ज्यादा लोग मोटापे का शिकार हैं। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) द्वारा 2017 में जारी अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार, अनुमान है कि भारत में गैर संचारी रोग के कारण होने वाली मौतों का अनुपात 1990 में 37.9 प्रतिशत से बढ़कर 2016 में 61.8 प्रतिशत हो गया है । भारत में मधुमेह और इसके दुष्प्रभावों की वजह से दस करोड़ से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है । जबकि इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन की रिपोर्ट कहती है कि 20-79 आयु वर्ग को होने वाली डायबिटीज के मामले में भारत दूसरे नंबर पर है। 


जिस देश में जीवन शैली से जुड़ी बीमारियों की स्थिति इतनी भयानक हो और हम फिर भी शौक से हर शादी/पार्टी में जंक फूड ठूंस ठूंस कर खा रहे हैं तो हमारा भविष्य क्या और कैसा होगा,इसका सहज अंदाजा लगा सकते हैं। 2019 में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया है कि खराब आहार से वैश्विक स्तर पर तंबाकू की तुलना में ज्‍यादा लोगों की मौत होती है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में वयस्‍क किसी न किसी रूप में अस्‍वस्‍थ खा रहे हैं, जिससे कुपोषण जैसी समस्‍याएं बढ़ती जा रही हैं। हमारे आहार में जंक फूड का दायरा इतना बढ़ चुका है कि भारत में 25 प्रतिशत से ज्‍यादा वयस्‍क सप्ताह में एक बार भी हरी पत्तेदार सब्जियों का सेवन नहीं करते। नतीजा वे बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। 


जंक फूड में मैदा और आलू से भी ज्यादा हानिकारक तेल होता है। वही तेल, जिसमें डूबते उतराते समोसे-कचौरी और ब्रेड पकौड़े देखकर हमारी लार टपकने लगती  है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया) के अनुसार एक बार खाद्य तेल के प्रयोग के बाद दोबारा उपयोग करने से कैंसर जैसी बीमारी का खतरा रहता है। तेल को बार-बार गर्म करने से धीरे-धीरे फ्री रेडिकल्स बनने से एंटी आक्सीडेंट की मात्रा खत्म होने लगती है। इसमें खतरनाक कीटाणु जन्म लेने लगते हैं, जो खाने के साथ चिपक कर हमारी सेहत को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे बॉडी में कोलेस्ट्रॉल की मात्रा भी तेजी से बढ़ जाती है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण की गाइडलाइन के अनुसार खाद्य तेल को तीन बार से ज्यादा इस्तेमाल नहीं करना चाहिए । लेकिन घर से लेकर बाजार तक एक ही तेल का बार बार इस्तेमाल सामान्य बात है और मजे की बात यह है कि नियम जो भी हों परंतु तेल के बार बार उपयोग पर किसी को आपत्ति नहीं है।


भारत में जंक फूड के उत्पादन और 22सेबिक्री को नियंत्रित करने वाले कोई विशेष कानून नहीं हैं। देश में खाद्य उत्पादों की सुरक्षा और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ही जिम्मेदार है। हालांकि, जंक फूड से संबंधित नियम इसके उपभोग से संबंधित बढ़ती चिंताओं को दूर करने के लिए पर्याप्त व्यापक नहीं है। प्राधिकरण ने उच्च वसा, नमक और चीनी वाले खाद्य पदार्थों की बिक्री और विपणन के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि ऐसे खाद्य पदार्थों को स्कूलों के 50 मीटर के भीतर बेचा या विज्ञापित नहीं किया जा सकता है, और इन खाद्य पदार्थों के विज्ञापन टेलीविजन पर बच्चों के कार्यक्रमों के दौरान प्रसारित नहीं किए जा सकते हैं। हालाँकि, ये दिशा-निर्देश स्वैच्छिक हैं, और इनका पालन न करने पर कोई दंड नहीं है। इसलिए सबसे जरूरी है कि जंक फूड को स्वाद के साथ सेहतमंद बनाने के लिए कुछ अनिवार्य कानूनी पहल होनी चाहिए मसलन कुछ देशों में शुरुआत हुई है जैसे कोलंबिया में ऐसे खाद्य पदार्थों पर टैक्स की दर बढ़ा दी गई है। द गार्जियन की रिपोर्ट के अनुसार, प्रभावित खाद्य पदार्थों पर अतिरिक्त टैक्‍स 10 फीसदी से शुरू होगा, जो अगले साल बढ़कर 15 प्रतिशत हो जाएगा और 2025 में 20 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा। हेल्थ पॉलिसी वॉच वेबसाइट की रिपोर्ट के अनुसार, टैक्‍स के दायरे में ऐसे सभी अल्ट्रा-प्रोसेस्‍ड फूड शामिल किए गए हैं, जिनमें ज्‍यादा चीनी, नमक और सैचुरेटेड फैट , सॉसेज, अनाज, जेली और जैम, प्यूरी, सॉस और मसाला शामिल हैं। मैक्सिको जैसे कुछ अन्य देशों में भी कदम उठाए गए हैं लेकिन हम नियमों और जागरूकता के अभाव में अपने पेट को बीमारियों की गोदाम और देश को बीमारियों का गढ़ बना रहे हैं।


 क्या हम खानपान में कुछ अभिनव प्रयास नहीं कर सकते!! खासतौर पर ट्रेन, स्कूल कालेज की कैंटीन,सरकारी दफ्तरों की कैंटीन और सरकारी आयोजनों में मोटे अनाज से बने सेहतमंद खाद्य पदार्थ ही उपलब्ध हों, ट्रेन में शाकाहारी/मांसाहारी खाने की चॉइस के साथ साथ मधुमेह और उच्च रक्तचाप वाले लोगों के लिए अलग खाना परोसा जाए और समोसे कचौरी या आइसक्रीम को सरकारी मैन्यू से पूरीतरह बाहर कर दिया जाए। मैदे के बिस्किट और कुकीज़ को आटे या श्रीअन्न से बनाया जाए और ट्रेन/कैंटीन में पोहा,उपमा, इडली सांभर, बाजरे की खिचड़ी, चीला जैसे लज़ीज़ और सेहतमंद खानपान को शामिल किया जाए। पहले ही हम बहुत देर कर चुके हैं,यदि अभी भी जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो हमारे साथ साथ नई पीढ़ी भी बीमार बनती जाएगी और आने वाले सालों में हमारा युवा ‘डिविडेंड’ के स्थान पर देश के लिए बोझ बन जाएगा।







‘बालूशाही’ के बहाने बदलाव की बात…!!

 

बालूशाही के बहाने आज बदलाव की बात…दरअसल, पिछले कुछ महीनों का अनुभव है कि बालूशाही एक बार फिर मिठाइयों की जीतोड़ प्रतिस्पर्धा में अपनी पहचान बनाती दिख रही है। पिछले दिनों हुए कुछ बड़े और अहम् आयोजनों में मिठाई के लिए आरक्षित स्थान पर बालूशाही ठाठ से बैठी दिखी…कहीं इसे गुलाब जामुन का साथ मिला तो कहीं किसी और मिठाई का और कहीं-कहीं तो इसकी अकेले की बादशाहत देखने को मिली। इससे शुरूआती नतीजा यही निकाला कि बालूशाही मिठाइयों की मुख्य धारा में लौट रही है और धीरे-धीरे अपना खोया हुआ अस्तित्व पुनः हासिल कर रही है।

इन दिनों पिज़्ज़ा, बर्गर,केक और पेस्ट्री में डूब-उतरा रही नयी पीढ़ी ने तो शायद बालूशाही का नाम भी नहीं सुना होगा। इस पीढ़ी को समझाने के लिए हम कह सकते हैं कि बालूशाही हमारे जमाने का मीठा बर्गर था या फिर आज का उनका प्रिय डोनट। समझाने तक तो ठीक है, लेकिन ‘कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली’ वाले अंदाज में कहें तो बालूशाही की बात और अंदाज़ ही निराला है। मैदे और आटे की देशी घी के साथ गुत्थम गुत्था वाली नूराकुश्ती के बाद उठती सौंधी और भीनी सुगंध और फिर चीनी की चाशनी में इलायची की खुशबू के साथ गोते लगाती गोल मटोल बालू। दरअसल बालू इसलिए क्योंकि शाही सरनेम तो इसे चीनी और इलायची का आवरण ओढ़ने के बाद ही मिलता है। कई जगह इसे बालुका भी कहते हैं जिसका अर्थ होता है बाटी या गेंहू से बनी गेंद। जब यह बालुका, चाशनी को पीकर और उसमें नहाकर शाही तेवर अपनाते हुए इतनी मुलायम हो जाती है कि मुंह में रखते ही घुल जाती है। देखने में कचौरी की छोटी-मीठी बहन और आकार में लड्डू की दीदी बालूशाही किसी समय हर शादी-ब्याह,पार्टी और पंगत का सबसे प्रमुख आकर्षण होती थी। अपने मीठे पर सूखे कलेवर के कारण इसे कहीं भी लाना-ले जाना और रिश्तेदारी में भेजना भी आसान था क्योंकि न तो यह गुलाब जामुन खानदान की तरह रस टपकाकर कपडे ख़राब करती है और न ही लड्डू की तरह भरभरा कर बिखर जाती है बल्कि यह तो ‘माँ’ की तरह ऊपर से कठोर और अन्दर से नरम स्वभाव वाली है। हमारी बालूशाही खोया और छेना की छरहरी मिठाइयों की तरह भी नहीं है जिनके स्वाद की असलियत दो चार दिन में खुल जाती है और वे बेस्वाद हो जाती हैं जबकि बालूशाही तो कई दिनों तक अपने स्वाद को अपने अंदर सहेजे रहती है।

उत्तरप्रदेश और बिहार में तो बताते हैं कि आज भी बालूशाही का राज चल रहा है और नए दौर की मिठाइयाँ इसके इर्द-गिर्द उसी तरह संख्या बढाने का काम काम करती हैं जैसे विवाह में दुल्हन की सहेलियां। उत्तरप्रदेश के बरेली के श्यामगंज में रम्कूमल की दुकान पर मिलने वाली शुद्ध देशी घी में बन रहीं करीब 100 साल पुरानी बालूशाही की मिठास आज भी लोगों को अपनी ओर खींच लाती है। बरेली का झुमका तो पहले ही बरेली के बाजार को देश भर में लोकप्रिय बना गया लेकिन यहाँ की बालूशाही ने झुमके को भी पीछे छोड़ दिया। 

भारत ही क्या, हमारे हमजाया पाकिस्तान-बांग्लादेश और नेपाली व्यंजनों में भी यह ऊँचे दर्जा रखती है।  बालूशाह, मक्खन बड़ा,भक्कम पेड़ा और या बाडुशा जैसे नामों से लोकप्रिय बालूशाही के नाम से भी जाना जाता है.जब बालूशाही में क्षेत्र के अनुसार कई तरह के बदलाव भी देखने को मिलते हैं मसलन उत्तर भारत में बालूशाही ज़्यादा मालदार होती है, वहीँ, दक्षिण में आमतौर पर सूखी और कम मीठी । लेकिन इस विविधता के बावजूद, बालूशाही इन दोनों ही इलाकों में अपनी खास पहचान रखती है ।

खास बात यह है कि बालूशाही पूरीतरह से स्वदेशी है और हमारे देश में ही जन्मी और सैकड़ों साल से अपने खास स्वाद के साथ विकसित हुई है। यही कारण है कि जयपुर और घनघोर मालवा में यह मक्खन बड़ा के बदले नाम से नजर आती है. इन्हीं वहीं,मक्खन बड़ा दक्षिण में बेकिंग सोडा से यारी कर यह बाडुशा कहलाने लगती है तो गोवा जाकर वहां की खुली आवोहवा में यह भक्कम पेड़ा बन जाती है.

बालूशाही की वापसी से यह बात भी साबित होती है कि किसी का भी समय सदैव एक सा नहीं रहता, वह बदलता जरूर है। बस, इसके लिए धीरज और कुछ समयानुरूप बदलाव की जरूरत होती है। इसलिए, यदि आप अभी गुमनामी के दौर से गुजर रहे हैं तो निश्चिंत रहिए वक्त आपका भी बदलेगा और आप भी अपने समाज की मुख्य धारा में एक दिन अवश्य ही वापस लौटेंगे। और हां एक और बात, जो लोग इन दिनों सोन पापड़ी का मज़ाक बना रहे हैं वे भी ध्यान रखें कि सुनहली रंगत वाली यह मिठाई एक दिन फिर शादी-पार्टियों की शान बनेगी और तब आपको उसके डिब्बे बिना खोले किसी और के यहां भेज देने का पछतावा होगा। वैसे भी, वंदे भारत जैसी ट्रेनों में सोन पापड़ी अपने परिवार को छोड़कर अकेले नई पैकिंग में नजर आने लगी है। आप भी, समय के मुताबिक खुद में कुछ बदलाव लाइए और फिर देखिए,समाज आपको कैसे हाथों हाथ लेता है।





ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्रियों वाला अनूठा शहर…!!


एक शहर में ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री!!…पढ़कर आप भी चौंक गए  न? हम-आप क्या, कोई भी आश्चर्य में पड़ जाएगा कि कैसे एक शहर या सीधे शब्दों में कहें तो एक राजधानी में कैसे दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल हो सकते हैं। राजनीति की स्थिति तो यह है कि अब एक ही दल में वर्तमान मुख्यमंत्री अपने ही दल के पूर्व मुख्यमंत्री को बर्दाश्त नहीं करते तो फिर एक ही शहर में यह कैसे संभव है कि ढाई राज्यपाल और दो मुख्यमंत्री हों और फिर भी कोई राजनीतिक विवाद की स्थिति नहीं बनती।

 

अब तक मुख्यमंत्री पद पर एक से ज्यादा दावेदारियां, ढाई-ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री और कई उपमुख्यमंत्री जैसी तमाम कहानियां हम आए दिन समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते रहते हैं लेकिन कोई शहर अपने सीने पर बिना किसी विवाद के दो मुख्यमंत्रियों की कुर्सी रखे हो और उस पर तुर्रा यह कि मुख्यमंत्रियो से ज्यादा राज्यपाल हों तो उस शहर पर बात करना बनता है। 


देश का सबसे सुव्यवस्थित शहर चंडीगढ़ वैसे तो अपने आंचल में अनेक खूबियां समेटे है लेकिन दो मुख्यमंत्री और ढाई राज्यपाल की खूबी इसे देश ही क्या दुनिया भर में अतिविशिष्ट बनाती है। जैसा की हम सभी जानते हैं कि चंडीगढ़ शहर, पंजाब और हरियाणा की राजधानी है इसलिए यहां पंजाब के मुख्यमंत्री भी रहते हैं तो हरियाणा के मुख्यमंत्री का भी सचिवालय है। अब जब मुख्यमंत्री दो हैं तो पंजाब और हरियाणा के राज्यपाल भी दो ही होंगे। लेकिन लेख का शीर्षक तो ढाई राज्यपाल' की बात कर रहा है तो फिर सवाल उठता है कि ये आधे राज्यपाल का गणित क्या है? 


दरअसल चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा की राजधानी होने के साथ साथ केंद्रशासित प्रदेश भी है इसलिए यहां लेफ्टिनेंट गवर्नर भी होते हैं। वैसे,अभी यह दायित्व भी पंजाब के राज्यपाल गुलाब चंद कटारिया के पास है इसलिए ढाई राज्यपाल लिखा है। यदि चंडीगढ के प्रशासक या लेफ्टिनेंट गवर्नर का दायित्व किसी अन्य व्यक्ति के पास होता तो हमें तीन राज्यपाल लिखना पड़ता। यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि ढाई राज्यपाल से आशय इस पद की गरिमा और दायित्वों पर टिप्प्णी करना नहीं है बल्कि दोहरा चार्ज होने के कारण हल्के फुल्के अंदाज में ढाई लिखा गया है। वैसे, लेफ्टिनेंट गवर्नर के 'पॉवर' की बात करें तो कई मामलों में वे पूरे मुख्यमंत्री पर भारी पड़ते हैं और दिल्ली से बेहतर इसका ज्वलंत उदाहरण और क्या हो सकता है।


इतने राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के कारण चंडीगढ़ का सेक्टर एक और दो वीआईपी रुतबा रखते हैं। इतना अहम शहर होने के बाद भी यहां 'वीआईपी मूवमेंट' उत्तर भारत के शहरों की तरह परेशान नहीं करता बल्कि आम लोगों की आवाजाही के बीच वीआईपी भी समन्वय के साथ 'मूव' करते रहते हैं। चंडीगढ़ का इतिहास और दो मुख्यमंत्रियों वाला शहर बनने की कहानी भी अनूठी है। दरअसल, आजादी के बाद  पंजाब का एक हिस्सा पाकिस्तान चला गया और उसकी तत्कालीन राजधानी लाहौर भी।  फिर शेष पंजाब,हरियाणा और हिमाचल को मिलाकर बने संयुक्त प्रांत की राजधानी के लिए 1953 में चंडीगढ़ बनाया गया। बताया जाता है कभी शिमला भी पंजाब की राजधानी थी। एक नवम्बर 1966 को पंजाब और हरियाणा अलग हो गए और इसके बाद, 1971 में हिमाचल प्रदेश का स्वतंत्र अस्तित्व वजूद में आ गया। 


हिमाचल को तो शिमला के रूप राजधानी की सौगात मिल गई परंतु हरियाणा और पंजाब का मन चंडीगढ़ पर अटक गया और जैसे महाभारत में द्रौपदी को अनचाहे ढंग से पांच पांडवों की पत्नी का दर्जा मिला था वैसे ही चंडीगढ़ को दो राज्यों की राजधानी का गौरव मिल गया । तब यही तय हुआ था कि हरियाणा के लिए अलग राजधानी मिलने तक चंडीगढ़ उसकी भी राजधानी बनी रहेगी। खास बात यह है कि छह दशक पूरे करने जा रहे इस शहर ने द्रौपदी की तरह कभी अपने आत्मसम्मान को खंडित नहीं होने दिया और अपने गौरव को हमेशा सर्वोपरि रखा है। शायद, इस शहर की खूबसूरती, व्यवस्थापन, पर्यावरण देखकर ही केंद्र सरकार का मन भी इस पर आया होगा और 1966 में उसने अपना एक प्रतिनिधि यहां बिठा दिया और इस तरह देश के सबसे खूबसूरत शहरों में से एक चंडीगढ़ दो मुख्यमंत्रियों और तीन राज्यपालों का अनूठा शहर बन गया।